Monday 23 April 2018

Waiting for a Visa - Chapter 4


डा. भीमराव अम्बेडकर की एक किताब "Waiting for a Visa" को कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे एक पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जाता है |
इस पुस्तक मे कुल छः अध्याय है |
Waiting for a Visa - By B.R. Ambedkar
*विदेशी ये तो जानते है की भारत मे Untouchability(अस्प्रश्यता या छुत-अछूत का रिवाज) है | पर वो इसे समझ नहीं पाते | ये लोग नहीं समझ पाते की कैसे कुछ अछूत, गाव मे बहुत से दुसरे हिन्दुओ के साथ एक कोने मे अपना जीवन बिताते है | कैसे ये लोग रोज गाव जाकर हर तरह की गन्दगी साफ करते है, दुकानदार से दूर से ही तेल और मसाले खरीदते है | हिन्दुओ के घर से खाना इकठ्ठा करते है |
गाव और गाव के लोगो को अपना मानते है, फिर भी गाव वालो से बिना छुए और बिना छुए(रहम के) रह जाते है |
----0-----अध्याय 4: दौलताबाद मे पानी अशुद्ध करना-----0----
साल था 1934, मेरे कुछ साथियो ने घुमने की मंशा प्रकट की, हमने मिल कर वेरुल की बुद्ध की गुफाए घुमने का प्लान बनाया | वेरुल जाने के लिए हमें औरंगाबाद से गुजरना पड़ता जो की हैदराबाद नाम के एक मुस्लिम राज्य मे है |
औरंगाबाद जाने के लिए हमें दौलताबाद को पार करते हुए जाना पड़ा जो की हैदाराबाद की एक एतिहासिक जगह है | हमने सोचा की दौलताबाद के प्रसिद्ध किले को भी देख लिया जाए |
हम दौलताबाद के किले तक पहुचे | किले के बाहर ही एक पानी की टंकी बनी थी | सफ़र मे काफी धुल उड़ चुकी थी, इसलिए हमने वहा अपना चेहरा धोया | फिर हम किले के गेट की तरफ बड़े, जहा दो हथियारबंद सैनिको ने हमारे लिए गेट खोले | उतने मे एक बूड़ा मुसलमान, जिसकी सफेद दाड़ी हवा मे लहरा रही थी पीछे से चिल्लाते हुए आया, "अछूतो ने हमारी टंकी गन्दी कर दी |" कुछ ही देर मे कई जवान और दुसरे बूड़े मुसलमान भी उसके साथ आ गए और हम सबको गालिया देने लगे, " अछूत पागल हो गए, अछूत अपना धर्म भूल गए, अछूतो को सबक सिखाना होगा |"
मैंने कहा, "हम यहाँ नए है और यहाँ के रिवाजो के बारे मे कुछ नहीं जानते |" वो मुसलमान अब वहा रहने वाले अछूतों की और मुड़े और पूछने लगे, "तुमने क्यों इनको नहीं बताया की इस टंकी का पानी अछूत छु नहीं सकते |" - बेचारे लोग, वे लोग तो वहा थे भी नहीं जब हम यहाँ पहुचे, वो तो शोर सुन कर वहा आए थे |
लेकिन मुसलमानो को इसकी कोई परवाह नहीं थी, वे तो बस हमे और उन्हें गालिया देते जा रहे थे | कुछ गालिया तो बहुत ही ख़राब थी, इतनी की उन्हें सहन करना मुश्किल हो रहा था |
उस समय मुझे लगा जैसे अब यहाँ दंगा भड़क सकता है, और शायद किसी का खून भी हो जाए |
कुछ ही समय मे मेरा सब्र टूट गया, और मैंने गुस्से मे उनसे पूछा - "क्या यही सब तुम्हारा धर्म तुम्हे सिखाता है ? अगर कोई अछूत मुस्लिम बन जाए, तो क्या तब थी तुम उसे पानी छूने से रोकोगे ??"
मेरे इस सीधे सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था, और अचानक वहा एक खामोशी छा गई | फिर मैंने पूछा, "अब हम किले मे जा सकते है या नहीं, बताओ मुझे ? अगर नहीं, तो हमें भी यहाँ नहीं रुकना |"
इतने मे एक सैनिक ने मुझसे मेरा नाम पूछा और अन्दर से सुपरीटेंडेंट को बुला लाया | सुपरीटेंडेंट ने हमें अन्दर आने दिया, और ये भी कहा की किले मे पानी को न छुए |
--> इस घटना ने मुझे बता दिया, की वह व्यक्ति जो हिन्दू के लिए अछूत होता है, वो मुसलमान के लिए भी अछूत होता है |

Waiting for a Visa - Chapter 3


डा. भीमराव अम्बेडकर की एक किताब "Waiting for a Visa" को कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे एक पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जाता है |
इस पुस्तक मे कुल छः अध्याय है |
Waiting for a Visa - By B.R. Ambedkar
*विदेशी ये तो जानते है की भारत मे Untouchability(अस्प्रश्यता या छुत-अछूत का रिवाज) है | पर वो इसे समझ नहीं पाते | ये लोग नहीं समझ पाते की कैसे कुछ अछूत, गाव मे बहुत से दुसरे हिन्दुओ के साथ एक कोने मे अपना जीवन बिताते है | कैसे ये लोग रोज गाव जाकर हर तरह की गन्दगी साफ करते है, दुकानदार से दूर से ही तेल और मसाले खरीदते है | हिन्दुओ के घर से खाना इकठ्ठा करते है |
गाव और गाव के लोगो को अपना मानते है, फिर भी गाव वालो से बिना छुए और बिना छुए(रहम के) रह जाते है |
----0-----अध्याय 3: गर्व, सम्मान और एक भयानक दुर्घटना-----0----
साला था 1929, बाम्बे सरकार ने दलितों पर हो रहे अत्याचारों की पड़ताल के लिए एक समिति बनाई थी | मुझे भी इस समिति का सदस्य बनाया गया था | हमारी टीम अलग-अलग हिस्सों मे बट गई | पड़ताल के बाद हमें बाम्बे लौटना था, लेकिन चालिसगाव के लोगो के बहुत विनती करने पर मे चालिसगाव मे एक रात रुकने को तैयार हो गया |
      जब मै महारवाडा स्टेशन पंहुचा, तो वहा चालिसगाव के लोग मुझे लेने आए, और मेरा स्वागत किया, जिससे मे अभिभूत हो गया | वहा से चालिसगाव कुछ दुरी पर था, इसलिए वो लोग मेरे लिए सवारी का इंतजाम करने चले गए | इसमें उन्हें काफी लेर लगी | मुझे समझ नहीं आया की इतनी देर क्यों लग रही है | आख़िरकार वो एक तांगा लेकर आ गए | मै तांगे पर सवार हो गया और वो लोग शार्टकट से पैदल ही चालिसगाव की और बड़े |
                सड़क पर जाते ही हम एक कार से टकराते टकराते बचे | हम बचे, क्योकि एक पुलिस वाले ने चिल्लाकर चेतावनी दे दी थी | मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ की ये तांगेवाले, जो रोज तांगा चलाते है, एसी गलती भी कर सकते है |
      खैर, हम आगे बड़े | गाव से ठीक पहले एक पुल था, इस पुल के दोनों और सुरक्षा के लिए कोई रेलिंग या दीवारे नहीं थी | जैसा की दुसरे पुल पर होती है | यह तो बस एक पतला सा पत्थरो का बना पुल था | पुल पर जाते ही तांगे का संतुलन बिगड़ गया और वह एक पत्थर पर उछाला, इसका झटका इतना अधिक था की मै उछल कर तांगे से पुल पर जा गिरा, और तांगा घोड़े समेत निचे नदी मे गिर गया | मै इतने जोर से गिरा था की बेहोश हो गया | गाव वाले मुझे लेने आए, और मुझे उठा कर गाव तक ले गए |
      जब मुझे होश आया तो मुझे सारी कहानी बताई गई | असल मे हुआ यह था, की जब वे लोग मेरे लिए तांगा लेने गए थे, तब तांगा वाला किसी अछूत के लिए तांगा चलने के लिए तैयार नहीं था, ये बात उसकी गरिमा के खिलाफ थी | लेकिन मुझे पैदल गाव ले जाना गाव वालो को मेरी गरिमा के खलाफ लग रहा था | इसलिए उन्होंने हल निकाला और तांगेवाले से तांगा किराए पर ले लिया, और तांगा चलाने के लिए गाव वालो मे से ही एक व्यक्ति तैयार किया, जिसने पहले कभी तांगा नहीं चलाया था | उसे लगा होगा की वह तांगा चला लेगा, लेकिन उस पतले पुल पर वह घबरा गया, और संतुलन खो बैठा |
      मेरी गरिमा का ख्याल रखने के चक्कर मे गाव वाले भूल ही गए, की गरिमा के ख्याल रखने से बढकर है, सुरक्षा का ख्याल रखना |
      मुझे इस घटना से यह भी पता चला की एक तांगे वाले मे भी इतना गर्व होता है, जो उसे किसी भी अछूत से उचा होने का आभास कराता है | भले ही अछूत कोई बड़ा वकील (बेरिस्टर) ही क्यों ना हो |

Waiting for a Visa - Chapter 1


डा. भीमराव अम्बेडकर की एक किताब "Waiting for a Visa" को कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे एक पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जाता है |
इस पुस्तक मे कुल छः अध्याय है |
Waiting for a Visa - By B.R. Ambedkar
*विदेशी ये तो जानते है की भारत मे Untouchability(अस्प्रश्यता या छुत-अछूत का रिवाज) है | पर वो इसे समझ नहीं पाते | ये लोग नहीं समझ पाते की कैसे कुछ अछूत, गाव मे बहुत से दुसरे हिन्दुओ के साथ एक कोने मे अपना जीवन बिताते है | कैसे ये लोग रोज गाव जाकर हर तरह की गन्दगी साफ करते है, दुकानदार से दूर से ही तेल और मसाले खरीदते है | हिन्दुओ के घर से खाना इकठ्ठा करते है |
गाव और गाव के लोगो को अपना मानते है, फिर भी गाव वालो से बिना छुए और बिना छुए(रहम के) रह जाते है |
----0-----अध्याय 1: बचपन की कोरेगाव की यात्रा, जो कीसी बुरे सपने सी थी-----0----
बात है 1901 की, मै नौ साल का था और अपने परिवार के साथ सतारा मे रहता था | माँ की मृत्यु हो चुकी थी और मेरे पिता कैशियर की नौकरी की लिए कोरेगाव चले गए थे |
अब घर मे रह गए थे सिर्फ 5 लोग | मेरी आंटी और 4 बच्चे(मै, मेरा बड़ा भाई और मेरी स्वर्गीय बहन के दो छोटे बेटे) |
मेरी आंटी ठिंगनी थी, और उनके पैरो मे कुछ तकलीफ थी, जिसके चलते, वो बिना किसी की मदद के खड़ी भी नहीं हो पाती थी |
खाना हम बच्चो को ही बनाना पड़ता था, और हम अक्सर बिरयानी बनाया करते थे | क्योकि हमें रोटी बनाना नहीं आता था |
      जब गर्मी की छुट्टिया शुरू हुई तो हमारे पिता ने हमें लिखा, की हम सब कोरेगाव आ जाए और इस बार की छुट्टिया यही बिताए |
      इतना पड़ते ही हम सारे बच्चो मे ख़ुशी और उत्साह फ़ैल गया | हममे से किसी ने भी इससे पहले रेलवे स्टेशन नहीं देखा था |
पापा ने आगे लिखा था की, "आने से पहले मुझे बता देना, ताकि मै अपने सेवक को तुम्हे लेने भुज दू" |
      इन सब तैयारियों के साथ हम चारो बच्चे सतारा से रवाना हुए | हमने त्योहारों पर पहने जाने वाले नए कपडे पहने और हमारी आंटी को पड़ोसियों की देख-रेख मे रख गए |
स्टेशन पहुच कर हमने मसूर की टिकट खरीदी जो की कोरेगाव से सबसे नजदीक का स्टेशन था | मसूर स्टेशन पर जब हम उतरे तब तक शाम के 5 बज चुके थे | कुछ ही देर मे सारे यात्री अपनी मंजिल को चले गए और हम चार बच्चे स्टेशन पर खड़े पापा या उनके सेवक का इंतजार करते रह गए, लेकिन कोई नहीं आया |
जब 1 घंटा बित गया तब स्टेशन मास्टर चेकिंग के लिए आया | उसने हमसे टिकट मांगी जो हमने दिखा दी, उसने हमसे पूछा की हम वहा क्यों रुके है |
      हमने उसे बताया की हमें कोरेगाव जाना है और हम अपने पिता या उनके सेवक का इंतजार कर रहे है | लेकिन लगता है उन्हें हमारे आने की खबर नहीं मिल सकी, अब हम नहीं जानते की कोरेगाव तक कैसे पहुचे |
हम बहुत ही अच्छे कपड़ो मे थे और स्टेशन मास्टर को ये यकीन था की हम ब्राह्मण के बच्चे है | इसलिए वो हमसे बड़े ही स्नेह से बाते कर रहा था |
      जैसा की हिन्दुओ मे आम है उसने हमसे पूछा, "तुम क्या हो" | बिना देर किये मैंने बोल दिया की हम महार है | यह सुनते ही स्टेशन मास्टर के चेहरे के भाव बदल गए | हम देख सकते थे, की एक अजीब सी शक्ति, उसे हमसे दूर धकेल रही है, और दूर रहने की भावना पैदा कर रही है |
      मेरा जवाब सुनते ही स्टेशन मास्टर उलटे पाव अपने कमरे मे चला गया | और हम वही खड़े के खड़े रह गए | ना पिता आए, ना उनका सेवक, और अब तो स्टेशन मास्टर भी चला गया | हमारे अन्दर की ख़ुशी ख़त्म हो चुकी थी, और उसकी जगह गहरी उदासी और डर ने ले ली थी |
आधे घंटे बाद स्टेशन मास्टर ने आकर हमसे पूछा की "अब तुम क्या करोगे |" हमने कहा अगर हमें एक तांगा मिल जाए तो हम उसे पैसे देकर कोरेगाव तक जा सकते है | और अगर कोरेगाव ज्यादा दूर नहीं है, तो हम पैदल ही चले जाएंगे |
      हमने तांगे वाले से पूछना शुरू किया, मगर कोई भी अछूतों को अपने तांगे मे नहीं बैठाना चाहता था | हमने दोगुना किराया देने की बात की, लेकिन जब बात अछूतों की हो, तो पैसा कोई मदद नहीं करता |
स्टेशन मास्टर जो हमारे लिए तांगे वालो से बात कर रहा था अब चुप खड़ा था, और उसे कुछ नहीं सूझ रहा था | अचानक उसने सवाल किया, "क्या तुम तांगा चला लोगे" | हमने लगभग चिल्लाते हुए कहा, "हां हम चला लेंगे" | जैसे हम सबको परेशानी का हल मिल गया हो |
      और इस तरह एक तांगे वाला, हमें दोगुने कीमत पर तांगा देने को तैयार हो गया | हमने तांगा चलाना शुरू किया, और तांगे वाला तांगे के साथ-साथ पैदल चलने लगा |
शाम के साड़े छः बज चुके थे | हमने तांगे वाले से पूछा की कोरेगाव पहुचने मे कितना समय लगेगा ? उसने कहा, "3 घंटे से ज्यादा नहीं" |
      हम आगे बड़े तो हमें एक नदी मिली जो लगभग सुख ही चुकी थी | तांगेवाले ने कहा की हम अपना खाना यही खा ले, क्योकि रस्ते मे पानी नहीं मिल पायेगा | उसने हमसे कुछ पैसे भी मांगे, ताकि वो भी पास के गाव जाकर कुछ खा ले |
हमने उसे पैसे दिए और हमारा टिफिन खोला, जो की हमारे पड़ोसियों ने तैयार करके दिया था | हमने से एक जब पानी लेने नदी मे पंहुचा, तो उसने देखा वहा बहुत गन्दगी है, और गाय भैस का मल पुत्र भी पड़ा है | पानी से बदबू भी आ रही है | ये पानी मनुष्यों के पीने लायक नहीं था | पानी न मिलने के कारण हम खाना भी पूरा नहीं खा पाए |
      अब हम तांगेवाले क इंतजार करने लगे जो की बहुत समय तक वहा नहीं आया | आख़िरकार वो आया और हमारी यात्रा फिर शुरू हुई | अँधेरा बड़ रहा था, और अब तांगेवाला अचानक अपने तांगे मे आ गया और घोड़ो की लगाम संभाल ली | हमें बड़ा ही अजीब लगा, क्योकि यह उन्ही तांगेवालो मे से था जो हमें तांगे मे बैठाने को तैयार नहीं हो रहे थे, और अब इस एकांत मे यह हमारे ही साथ बड़े आराम से बैठा तांगा चला रहा था | लेकिन हममे से किसी ने भी उससे इस बारे मे कुछ नहीं पूछा, हम तो बस कोरेगाव पहुचना चाहते थे |
      कुछ ही देर मे वहा घोर अंधेरा छा गया | वहा कोई नहीं था | ना आदमी, ना औरत, ना ही कोई जानवर | हमें तीन घंटे से ज्यादा हो गए थे, और हम डरे सहमे से बैठे थे | हमें लगने लगा की ये तांगेवाला कही हमें दूर अकेले मे ले जाकर मार तो नहीं डालेगा | हमारे पास गहने और पैसे थे, जो हमारी सोच की पुष्टी कर रहे थे |
      अब हम लगातार पूछते जा रहे थे की कोरेगाव कितनी दूर है और अब तक हम वहा पहुचे क्यों नहीं ? और वो कह रहा था की "ज्यादा दूर नहीं, बस थोड़ी दूर और" |
अब हमने रोना शुरू कर दिया, लेकिन तांगेवाला चुपचाप तांगा चलता रहा | अचानक हमें सामने एक रोशनी दिखाई दी | तांगेवाले ने कहा, वो देखो, वो टोल कलेक्टर की रोशनी है, हम यही रात बिताएंगे" |
आखिर हम टोल कलेक्टर निवास पर पहुच गए | वहा पहले से ही दुसरे तांगे और लोग मौजूद थे | हमने राहत की सास ली | हमें प्यास लगी थी इसलिए हमने टोल कलेक्टर से पानी माँगा लेकिन हमारे अछूत होने की वजह से उसने हमें पानी नहीं दिया |
      किसी तरह हमने वहा रात बिताई और सुबह-सुबह हम फिर कोरेगाव को निकले | जब हम वहा पहुचे तो पिताजी हमें देख चौक गए, क्योकि उन्हें हमारे आने की कोई खबर नहीं थी | हमने स्पष्ट किया की हमने चिट्ठी लिखी थी, जिसमे हमने आने का दिन बताया था | बाद मे पता चला की सारी गलती पापा के सेवक की थी, जो उन्हें चिठ्ठी देना भूल गया था |
इस घटना से मुझे गहरा झटका लगा | हालाँकि मे अस्प्रश्यता के बारे पहले भी जानता था | क्योकि स्कुल मे मुझे एक कोने मे बैठाया जाता था | और बैठने के लिए कपड़े का टुकड़ा भी मुझे घर सि लाना पड़ता था | शाम को मे उस टुकड़े को मोड़ कर घर ले जाता था और अगली सुबह फिर ले आता था |
      मुझे मटके को छूने की इजाजत नहीं थी, और जब भी मुझे प्यास लगती थी चौकीदार पानी निकलकर मेरे हाथो पर डालता था | जिसे मे पिता था | अगर चौकीदार किसी दिन नहीं आता था, तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता था |  एक लाइन मे कह सकते है "चौकीदार नहीं, तो पानी नहीं" |
मुझे पता है की हमारे कपड़े हमारी बहन धोती थी | एसा नहीं था की शहर मे कोई धोबी नहीं था या हम उसे पैसे नहीं दे सकते थे | असल मे कोई भी धोबी अछूतों के कपडे नहीं छूता था |
      मेरे बाल काटने का काम थी मेरी बहन ही किया करती थी, और हम पर हाथ आजमाते-आजमाते, बाल काटने की उस्ताद बन गई थी | शहर मे नाइयो की कमी नहीं थी | यहाँ भी वही बात थी, की अचुतो के बाल काटे तो काटे कौन |
मै ये सब जनता था | लेकिन इस घटना ने मुझे छूत अछूत की इस प्रथा के बारे मे गहरे से सोचने पर मजबूर किया |

Waiting for a Visa - Chapter 2


डा. भीमराव अम्बेडकर की एक किताब "Waiting for a Visa" को कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे एक पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जाता है |
इस पुस्तक मे कुल छः अध्याय है |
Waiting for a Visa - By B.R. Ambedkar
*विदेशी ये तो जानते है की भारत मे Untouchability(अस्प्रश्यता या छुत-अछूत का रिवाज) है | पर वो इसे समझ नहीं पाते | ये लोग नहीं समझ पाते की कैसे कुछ अछूत, गाव मे बहुत से दुसरे हिन्दुओ के साथ एक कोने मे अपना जीवन बिताते है | कैसे ये लोग रोज गाव जाकर हर तरह की गन्दगी साफ करते है, दुकानदार से दूर से ही तेल और मसाले खरीदते है | हिन्दुओ के घर से खाना इकठ्ठा करते है |
गाव और गाव के लोगो को अपना मानते है, फिर भी गाव वालो से बिना छुए और बिना छुए(रहम के) रह जाते है |



----0-----अध्याय 2: विदेश से लौटा और ठहरने की जगह नहीं मिली-----0----
बरोड़ा के महाराजा द्वारा मुझे अमेरिका पड़ने भेजा गया था | मैंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे पड़ाई की | इसके बाद मे पोस्ट ग्रेजुएट के लिए लन्दन के स्कुल आफ लन्दन चला गया |
      पड़ाई ख़त्म कर, मे वापस भारत लौटा | क्योकि मे बरोड़ा राज्य द्वारा शिक्षित किया गया था, इसलिए ये मेरा फर्ज बनता था, की मै अपनी सेवाए इस राज्य को दू | देश आते ही मै सबसे पहले बरोड़ा को निकल गया |
      अमेरिका और यूरोप मे 5 साल पड़ने की बाद, मे ये भूल ही चूका था की मै अछूत हु | और इस देश मे अछूत जहा भी जाता है वहा परेशानी ही खडी होती है | खुद के लिए भी, और दुसरो के लिए भी |
      जब मै बरोड़ा स्टेशन पंहुचा तो एक सवाल मुझे परेशान करने लगा | "अब कहा जाऊ ? मुझे कौन रखेगा ?" इस सवाल ने मेरे अन्दर घबराहट और खलबली मचा दी |
      "हिन्दू होस्टल ? वो मुझे नहीं रखेंगे ! उन्हें मे अच्छे से जानता हु | वहा जाने का तो सिर्फ एक ही तरीका है, हिन्दू बनकर जाना |" लेकिन मै इसके लिए तैयार नहीं था, क्योकि जब कभी मेरा राज खुलता, तो नतीजा बहुत ही खतरनाक हो सकता था |
      मेरे कुछ दोस्त बरोड़ा मे रह रहे थे | वो मेरे साथ अमेरिका मे भी थे | "क्या मे उनके यहाँ जा सकता हु ! मे पक्का नहीं कह सकता ! हो सकता है वो लज्जित महसूस करे एक अछूत को घर मे रख कर ?"
      उस स्टेशन की छत के निचे खड़ा मै सोचता रहा की, "जाऊ तो जाऊ कहा ? करू तो करू क्या ?"
मैंने किसी से इस बारे मे पूछने की सोची | तब तक सारे यात्री स्टेशन से जा चुके थे | और मे अकेला ही पीछे रह गया था | बाहर कुछ रिक्शा वाले थे, जिन्हें कोई सवारी नहीं मिल पील थी | वो सब मेरी और ही देख रहे थे | मैंने उनमे से एक को बुलाया और पूछा की, "क्या यहाँ कोई होटल, या रहने की कोई जगह है ?" उसने कहा, "यहाँ एक पारसी धर्मशाला है | और वो लोगो को किराए पर रहने देते है |" पारसियों की धर्मशाला ! यह सुनकर मेरा मन ख़ुशी से भर गया | पारसी जोरएस्ट्रियन धर्म के अनुयायी है | और मुझे उनसे अछूत समझे जाने का डर बिलकुल नहीं था | क्योकि पारसी धर्म मे अस्प्रश्यता के लिए कोई जगह नहीं( जोरएस्ट्रियन पारसी धर्म के संस्थापक थे - जोरएस्ट्रियन धर्म के हिसाब से इंसान सिर्फ दो तरह के होते है | एक अच्छे और दुसरे बुरे )
मैंने ख़ुशी-ख़ुशी अपना सामान अपने रिक्शे मे रखा और ड्राइवर से पारसी धर्मशाला जाने को कहा |
      पारसी धर्मशाला/सराय दो मंजिला मकान था | निचले माले पर, एक बूड़ा पारसी अपने परिवार के साथ रहता था | वो एक रखवाला था, और यहाँ रुकने वाले यात्रियों के खाने का इंतजाम करता था | मै सराय पंहुचा तो इस बड़े पारसी ने मुझे ऊपर का कमरा दिखाया | मै बहुत खुश था, की आखिरकार मेरी रूकने की परेशानी ख़त्म हुई | मैंने अपना शर्ट निकला, और कमरे मे आराम करने लगा | थोड़ी देर बाद रखवाला अपने हाथ मे एक किताब लेकर आया | मैने शर्ट नहीं पहनी थी, इसलिए वो ये देख सकता था की मेरे पास ना साद्र है, ना कास्ति (वो दो चीजे जो हर पारसी जरुर पहनता है, जो पारसीयो की पहचान है |)
उसने पूछा, "तुम कौन हो ?" मैंने कहा, "मै हिन्दू हु" | वो चौक गया, और मुझसे कहा की "तुम यहाँ नहीं रह सकते |" मै नहीं जानता था की वो धर्मशाला सिर्फ पारसियों के लिए है | मुझे तो जैसे साप सूंघ गया | मेरे अन्दर फिर वाही सवाल घुमने लगा, "जाऊ तो जाऊ कहा ?"
      मैंने उससे कहा "हिन्दू होते हुए भी मुझे यहाँ रुकने मे कोई परेशानी नहीं, अगर तुम्हे कोई परेशानी नहीं | उसने कहा, "कैसे? मुझे रजिस्टर मे मेंटेन करना पड़ता है | लिखना पड़ता है की कौन यहाँ रुका, और कब तक रुका |
      मैं उसकी परेशानी समझ गया | मैंने उससे कहा, "मै एक पारसी नाम से यहाँ रह लूँगा | आखिर तुम्हे परेशानी क्या है, जब मुझे कोई परेशानी नहीं ? तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगा, तुम्हे तो पैसे मिलेंगे |"
      वो मेरी बात से सहमत हो गया, उसे काफी समय से कोई ग्राहक नहीं मिला था, और वो पैसे कमाने का मौका गवाना नहीं चाहता था | वो निचे चला गया | मैंने राहत की सास ली, मेरी परेशानी दूर हो चुकी थी, मै खुश था | पर मुझे जरा भी अंजादा नहीं था, की ये ख़ुशी कितने कम समय की है | वहा पर बीती उस भयानक घटना से पहले, मै वहा बिताए समय का वर्णन करना चाहूँगा |
      इस सराय मे एक छोटा सा सोने का कमरा था, जो की एक छोटे से बाथरूम से जुड़ा था | और एक बड़ा हाल था, जो टूटी कुर्सी, टेबल और ऐसे ही कबाड़ से भरा था | इन सारी परिस्थिति मे मै एकांत मे रहने लगा |
      रखवाला सुबह मेरे लिए चाय लेकर आता था | 9:30 पर वो फिर आता था, नाश्ता लेकर | आखिर मे वह शाम को 8:30 पर आता था, रात का भोजन लेकर |
रखवाला तभी आता था जब आना उसकी मज़बूरी हो, और मुझसे एक शब्द भी नहीं कहता था |
                बरोड़ा के महाराजा द्वारा मुझे अकाउंटेंट जनरल आफिस मे पदस्त किया गया था | मे पारसी सराय को सुबह 10 बजे छोड़ देता था, और वापस रात 8 बजे आता था | मै जितना हो सके सराय से बाहर रहने की कोशिश करता था, और वापस भी इसलिए आता था, क्योकि मेरे पास रहने को और कोई जगह नहीं थी |
      यहा बात करने को कोई नहीं था | बस एकांत, ऊपर से यहाँ रात मे घना अँधेरा छा जाता था | यहाँ ना बिजली थी, न तेल वाला लेम्प | रखवाला मुझे एक छोटा हरिकेन लेम्प दे जाता था, जिसकी रोशनी मुश्किल से कुछ इंच ही जा पाती थी |
      मुझे एसा लगता था जैसे मे किसी कालकोठरी मे हु | मुझे अक्सर किसी से बाते करने का मन करता, पर यहाँ मेरे साथ कोई नहीं था | इसलिए मैनें किताबो का साथ अपनाया, मै पड़ता था, और बस पड़ता रहता था | पड़ने मे मै ऐसे खो जाता था, की अपने अकेलेपन को भूल ही जाता था | लेकिन चमगादड़ के चीखने और फड़फड़ाने की आवाज मुझे फिर उसी कालकोठरी मे ले आती थी | ये चमगादड़ जिन्होंने उस हाल को अपना घर बना लिया था, अक्सर मुझे याद दिलाते रहते थे की मै किन अजीब हालातो मे फसा हु |
      मेरी स्थिति इतनी बुरी थी, की जब मेरी बहन का लड़का मुझे मेरा बचा हुआ सामान देने आया, तो मेरी हालत देखकर वो जोर जोर से रोने लगा | कभी-कभी मुझे गुस्सा आता था, लेकिन फिर मे खुद को समझाता था, की कुछ ना होने से अच्छा है, कुछ तो होना |
      मै सरकारी कमरा चाहता था, और इसके लिए मेने अर्जी भी दी थी | लेकिन लगता था की अधीकारी मुझे कोई कमरा देना ही नहीं चाहते है | मेरी अर्जी एक से दुसरे अधिकारी के पास घुमती रही | और इधर वो भयानक, विनाशकारी दिन आ गया ?
      ये सराय मे मेरा ग्यारहव दिन था | मेरे सुबह का नास्ता किया, कपड़े पहने, और बस आफिस को जाने ही वाला था, की मैंने सिड़ीयो पर लोगो के आने की आवाज सुनी | मुझे लगा की शायद वो दुसरे यात्री होंगे | लेकिन मे गलत था | मैंने देखा की 10-12 पारसी अपने हाथो मे डंडे लिए गुस्से मे मेरी ही और आ रहे है |
      वो कमरे के दरवाजे पर लाईन से खड़े हो गए, और मुझसे चिल्ला चिल्ला कर सवाल करने लगे | "कौर है तू ? यहाँ क्यों आया है ? तेरी हिम्मत कैसे हुई पारसी नाम रखने की ! धोखेबाज अछूत, तूने हमारी पारसी धर्मशाला को गन्दा कर दिया, अशुद्ध कर दिया |
      मै चुपचाप खड़ा रहा, मैंने कोई जवाब नहीं दिया | मैंने पारसी बनने का नाटक किया, जो की धोखा था | और अब ये भेद खुल चूका था |
      हो सकता था वो मुझे पीटना शुरू कर देते, और शायद पिट-पिट कर मार डालते | लेकिन मेरी चुप्पी और नम्रता को देखते हुए वो मुझे चेतावनी देकर चले गए, की शाम तक किसी भी हालत मे यह कमरा खाली कर देना |
      पारसियों के जाने दे बाद मै बैठ गया और इस परिस्थिति से बाहर आने के तरीके सोचने लगा | बरोड़ा एक बड़ा शहर था, और वहा कोई अछूत नहीं था जिसे मै पहचानता था | मेरे दो दोस्त वही रहते थे, लेकिन एक हिन्दू था, और एक इसाई |
      पहले मै हिन्दू दोस्त के पास गया और उसे अपनी परेशानी बताई | वो मेरा अच्छा दोस्त था, और बहुत दयालु भी था | वो मेरे लिए दुखी था, लेकिन उसने कहा, "अगर मै तुम्हे अपने यहाँ रखूँगा, तो मेरे नौकर तक घर छोड़कर चले जाएंगे |" मै उसकी हालत समझ गया और उस पर जयादा दबाव नहीं डाला |
      फिर मै अपने इसाई मित्र के पास गया | उसने मुझसे कहा की, "एक दिन बाद मेरी बीवी यहाँ आ रही है, और तुम्हे घर मे रखना है या नहीं ये बात मुझे उससे भी पूछनी पड़ेगी |"
उसका जवाब बड़ा ही डिप्लोमेटिक(व्यवहार कुशल) था | क्योकि उसकी बीवी असल मे एक ब्राह्मण महिला थी, और हालाँकि उसने इसाई धर्म अपना लिया था, लेकिन अछूतों के प्रति बचपन से पैदा की गई नफरत उससे हमेशा के लिए जुड़ चुकी थी |
      अब मेरे पास ना कमरा था, ना दोस्तों का साथ | अब क्या किया जाए ? फिर से वही सवाल मेरे सामने खड़ा था | मेरे पास अब एक ही रास्ता था | वापस बाम्बे लौटने का |
      बाम्बे के लिए ट्रेन शाम 9 बजे थी | मुझे किसी तरह पाच घंटे बिताने थे | और ये पाच घंटे मैंने एक पब्लिक गार्डन कामेठी बाग़ मे बिताए | यहाँ आराम से बैठ कर मे सोचने लगा, की आखिर ये क्या हो गया मेरे साथ ? मै अपने माता पिता को याद करने लगा, जैसे बच्चे करते है जब वह गुम हो जाते है |
      मै बही आशा के साथ बरोड़ा आया था | मैंने कई अच्छे आफर ठुकराए थे | क्योकि मै सोचता था की बरोड़ा को अपनी सेवाए देना मेरा पहला फर्ज है, जहा के महाराजा ने मुझे पड़ाया | और अब देखो, मै वापस बाम्बे जा रहा हु, मात्र 11 दिन बरोड़ा मे बिताकर |
      आज भी मुझे वो डंडे हाथ मे लिए, गुस्सेल पारसी याद आ जाते है | और यह याद अक्सर मेरी आखे नम कर जाती है |
      इस घटना ने मुझे सिखाया की सिर्फ हिन्दू ही नहीं, पारसी भी अपने धर्म से हटकर, छुत-अछूत की प्रथा मानने लगे है |