Monday 23 April 2018

Waiting for a Visa - Chapter 2


डा. भीमराव अम्बेडकर की एक किताब "Waiting for a Visa" को कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे एक पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जाता है |
इस पुस्तक मे कुल छः अध्याय है |
Waiting for a Visa - By B.R. Ambedkar
*विदेशी ये तो जानते है की भारत मे Untouchability(अस्प्रश्यता या छुत-अछूत का रिवाज) है | पर वो इसे समझ नहीं पाते | ये लोग नहीं समझ पाते की कैसे कुछ अछूत, गाव मे बहुत से दुसरे हिन्दुओ के साथ एक कोने मे अपना जीवन बिताते है | कैसे ये लोग रोज गाव जाकर हर तरह की गन्दगी साफ करते है, दुकानदार से दूर से ही तेल और मसाले खरीदते है | हिन्दुओ के घर से खाना इकठ्ठा करते है |
गाव और गाव के लोगो को अपना मानते है, फिर भी गाव वालो से बिना छुए और बिना छुए(रहम के) रह जाते है |



----0-----अध्याय 2: विदेश से लौटा और ठहरने की जगह नहीं मिली-----0----
बरोड़ा के महाराजा द्वारा मुझे अमेरिका पड़ने भेजा गया था | मैंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे पड़ाई की | इसके बाद मे पोस्ट ग्रेजुएट के लिए लन्दन के स्कुल आफ लन्दन चला गया |
      पड़ाई ख़त्म कर, मे वापस भारत लौटा | क्योकि मे बरोड़ा राज्य द्वारा शिक्षित किया गया था, इसलिए ये मेरा फर्ज बनता था, की मै अपनी सेवाए इस राज्य को दू | देश आते ही मै सबसे पहले बरोड़ा को निकल गया |
      अमेरिका और यूरोप मे 5 साल पड़ने की बाद, मे ये भूल ही चूका था की मै अछूत हु | और इस देश मे अछूत जहा भी जाता है वहा परेशानी ही खडी होती है | खुद के लिए भी, और दुसरो के लिए भी |
      जब मै बरोड़ा स्टेशन पंहुचा तो एक सवाल मुझे परेशान करने लगा | "अब कहा जाऊ ? मुझे कौन रखेगा ?" इस सवाल ने मेरे अन्दर घबराहट और खलबली मचा दी |
      "हिन्दू होस्टल ? वो मुझे नहीं रखेंगे ! उन्हें मे अच्छे से जानता हु | वहा जाने का तो सिर्फ एक ही तरीका है, हिन्दू बनकर जाना |" लेकिन मै इसके लिए तैयार नहीं था, क्योकि जब कभी मेरा राज खुलता, तो नतीजा बहुत ही खतरनाक हो सकता था |
      मेरे कुछ दोस्त बरोड़ा मे रह रहे थे | वो मेरे साथ अमेरिका मे भी थे | "क्या मे उनके यहाँ जा सकता हु ! मे पक्का नहीं कह सकता ! हो सकता है वो लज्जित महसूस करे एक अछूत को घर मे रख कर ?"
      उस स्टेशन की छत के निचे खड़ा मै सोचता रहा की, "जाऊ तो जाऊ कहा ? करू तो करू क्या ?"
मैंने किसी से इस बारे मे पूछने की सोची | तब तक सारे यात्री स्टेशन से जा चुके थे | और मे अकेला ही पीछे रह गया था | बाहर कुछ रिक्शा वाले थे, जिन्हें कोई सवारी नहीं मिल पील थी | वो सब मेरी और ही देख रहे थे | मैंने उनमे से एक को बुलाया और पूछा की, "क्या यहाँ कोई होटल, या रहने की कोई जगह है ?" उसने कहा, "यहाँ एक पारसी धर्मशाला है | और वो लोगो को किराए पर रहने देते है |" पारसियों की धर्मशाला ! यह सुनकर मेरा मन ख़ुशी से भर गया | पारसी जोरएस्ट्रियन धर्म के अनुयायी है | और मुझे उनसे अछूत समझे जाने का डर बिलकुल नहीं था | क्योकि पारसी धर्म मे अस्प्रश्यता के लिए कोई जगह नहीं( जोरएस्ट्रियन पारसी धर्म के संस्थापक थे - जोरएस्ट्रियन धर्म के हिसाब से इंसान सिर्फ दो तरह के होते है | एक अच्छे और दुसरे बुरे )
मैंने ख़ुशी-ख़ुशी अपना सामान अपने रिक्शे मे रखा और ड्राइवर से पारसी धर्मशाला जाने को कहा |
      पारसी धर्मशाला/सराय दो मंजिला मकान था | निचले माले पर, एक बूड़ा पारसी अपने परिवार के साथ रहता था | वो एक रखवाला था, और यहाँ रुकने वाले यात्रियों के खाने का इंतजाम करता था | मै सराय पंहुचा तो इस बड़े पारसी ने मुझे ऊपर का कमरा दिखाया | मै बहुत खुश था, की आखिरकार मेरी रूकने की परेशानी ख़त्म हुई | मैंने अपना शर्ट निकला, और कमरे मे आराम करने लगा | थोड़ी देर बाद रखवाला अपने हाथ मे एक किताब लेकर आया | मैने शर्ट नहीं पहनी थी, इसलिए वो ये देख सकता था की मेरे पास ना साद्र है, ना कास्ति (वो दो चीजे जो हर पारसी जरुर पहनता है, जो पारसीयो की पहचान है |)
उसने पूछा, "तुम कौन हो ?" मैंने कहा, "मै हिन्दू हु" | वो चौक गया, और मुझसे कहा की "तुम यहाँ नहीं रह सकते |" मै नहीं जानता था की वो धर्मशाला सिर्फ पारसियों के लिए है | मुझे तो जैसे साप सूंघ गया | मेरे अन्दर फिर वाही सवाल घुमने लगा, "जाऊ तो जाऊ कहा ?"
      मैंने उससे कहा "हिन्दू होते हुए भी मुझे यहाँ रुकने मे कोई परेशानी नहीं, अगर तुम्हे कोई परेशानी नहीं | उसने कहा, "कैसे? मुझे रजिस्टर मे मेंटेन करना पड़ता है | लिखना पड़ता है की कौन यहाँ रुका, और कब तक रुका |
      मैं उसकी परेशानी समझ गया | मैंने उससे कहा, "मै एक पारसी नाम से यहाँ रह लूँगा | आखिर तुम्हे परेशानी क्या है, जब मुझे कोई परेशानी नहीं ? तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगा, तुम्हे तो पैसे मिलेंगे |"
      वो मेरी बात से सहमत हो गया, उसे काफी समय से कोई ग्राहक नहीं मिला था, और वो पैसे कमाने का मौका गवाना नहीं चाहता था | वो निचे चला गया | मैंने राहत की सास ली, मेरी परेशानी दूर हो चुकी थी, मै खुश था | पर मुझे जरा भी अंजादा नहीं था, की ये ख़ुशी कितने कम समय की है | वहा पर बीती उस भयानक घटना से पहले, मै वहा बिताए समय का वर्णन करना चाहूँगा |
      इस सराय मे एक छोटा सा सोने का कमरा था, जो की एक छोटे से बाथरूम से जुड़ा था | और एक बड़ा हाल था, जो टूटी कुर्सी, टेबल और ऐसे ही कबाड़ से भरा था | इन सारी परिस्थिति मे मै एकांत मे रहने लगा |
      रखवाला सुबह मेरे लिए चाय लेकर आता था | 9:30 पर वो फिर आता था, नाश्ता लेकर | आखिर मे वह शाम को 8:30 पर आता था, रात का भोजन लेकर |
रखवाला तभी आता था जब आना उसकी मज़बूरी हो, और मुझसे एक शब्द भी नहीं कहता था |
                बरोड़ा के महाराजा द्वारा मुझे अकाउंटेंट जनरल आफिस मे पदस्त किया गया था | मे पारसी सराय को सुबह 10 बजे छोड़ देता था, और वापस रात 8 बजे आता था | मै जितना हो सके सराय से बाहर रहने की कोशिश करता था, और वापस भी इसलिए आता था, क्योकि मेरे पास रहने को और कोई जगह नहीं थी |
      यहा बात करने को कोई नहीं था | बस एकांत, ऊपर से यहाँ रात मे घना अँधेरा छा जाता था | यहाँ ना बिजली थी, न तेल वाला लेम्प | रखवाला मुझे एक छोटा हरिकेन लेम्प दे जाता था, जिसकी रोशनी मुश्किल से कुछ इंच ही जा पाती थी |
      मुझे एसा लगता था जैसे मे किसी कालकोठरी मे हु | मुझे अक्सर किसी से बाते करने का मन करता, पर यहाँ मेरे साथ कोई नहीं था | इसलिए मैनें किताबो का साथ अपनाया, मै पड़ता था, और बस पड़ता रहता था | पड़ने मे मै ऐसे खो जाता था, की अपने अकेलेपन को भूल ही जाता था | लेकिन चमगादड़ के चीखने और फड़फड़ाने की आवाज मुझे फिर उसी कालकोठरी मे ले आती थी | ये चमगादड़ जिन्होंने उस हाल को अपना घर बना लिया था, अक्सर मुझे याद दिलाते रहते थे की मै किन अजीब हालातो मे फसा हु |
      मेरी स्थिति इतनी बुरी थी, की जब मेरी बहन का लड़का मुझे मेरा बचा हुआ सामान देने आया, तो मेरी हालत देखकर वो जोर जोर से रोने लगा | कभी-कभी मुझे गुस्सा आता था, लेकिन फिर मे खुद को समझाता था, की कुछ ना होने से अच्छा है, कुछ तो होना |
      मै सरकारी कमरा चाहता था, और इसके लिए मेने अर्जी भी दी थी | लेकिन लगता था की अधीकारी मुझे कोई कमरा देना ही नहीं चाहते है | मेरी अर्जी एक से दुसरे अधिकारी के पास घुमती रही | और इधर वो भयानक, विनाशकारी दिन आ गया ?
      ये सराय मे मेरा ग्यारहव दिन था | मेरे सुबह का नास्ता किया, कपड़े पहने, और बस आफिस को जाने ही वाला था, की मैंने सिड़ीयो पर लोगो के आने की आवाज सुनी | मुझे लगा की शायद वो दुसरे यात्री होंगे | लेकिन मे गलत था | मैंने देखा की 10-12 पारसी अपने हाथो मे डंडे लिए गुस्से मे मेरी ही और आ रहे है |
      वो कमरे के दरवाजे पर लाईन से खड़े हो गए, और मुझसे चिल्ला चिल्ला कर सवाल करने लगे | "कौर है तू ? यहाँ क्यों आया है ? तेरी हिम्मत कैसे हुई पारसी नाम रखने की ! धोखेबाज अछूत, तूने हमारी पारसी धर्मशाला को गन्दा कर दिया, अशुद्ध कर दिया |
      मै चुपचाप खड़ा रहा, मैंने कोई जवाब नहीं दिया | मैंने पारसी बनने का नाटक किया, जो की धोखा था | और अब ये भेद खुल चूका था |
      हो सकता था वो मुझे पीटना शुरू कर देते, और शायद पिट-पिट कर मार डालते | लेकिन मेरी चुप्पी और नम्रता को देखते हुए वो मुझे चेतावनी देकर चले गए, की शाम तक किसी भी हालत मे यह कमरा खाली कर देना |
      पारसियों के जाने दे बाद मै बैठ गया और इस परिस्थिति से बाहर आने के तरीके सोचने लगा | बरोड़ा एक बड़ा शहर था, और वहा कोई अछूत नहीं था जिसे मै पहचानता था | मेरे दो दोस्त वही रहते थे, लेकिन एक हिन्दू था, और एक इसाई |
      पहले मै हिन्दू दोस्त के पास गया और उसे अपनी परेशानी बताई | वो मेरा अच्छा दोस्त था, और बहुत दयालु भी था | वो मेरे लिए दुखी था, लेकिन उसने कहा, "अगर मै तुम्हे अपने यहाँ रखूँगा, तो मेरे नौकर तक घर छोड़कर चले जाएंगे |" मै उसकी हालत समझ गया और उस पर जयादा दबाव नहीं डाला |
      फिर मै अपने इसाई मित्र के पास गया | उसने मुझसे कहा की, "एक दिन बाद मेरी बीवी यहाँ आ रही है, और तुम्हे घर मे रखना है या नहीं ये बात मुझे उससे भी पूछनी पड़ेगी |"
उसका जवाब बड़ा ही डिप्लोमेटिक(व्यवहार कुशल) था | क्योकि उसकी बीवी असल मे एक ब्राह्मण महिला थी, और हालाँकि उसने इसाई धर्म अपना लिया था, लेकिन अछूतों के प्रति बचपन से पैदा की गई नफरत उससे हमेशा के लिए जुड़ चुकी थी |
      अब मेरे पास ना कमरा था, ना दोस्तों का साथ | अब क्या किया जाए ? फिर से वही सवाल मेरे सामने खड़ा था | मेरे पास अब एक ही रास्ता था | वापस बाम्बे लौटने का |
      बाम्बे के लिए ट्रेन शाम 9 बजे थी | मुझे किसी तरह पाच घंटे बिताने थे | और ये पाच घंटे मैंने एक पब्लिक गार्डन कामेठी बाग़ मे बिताए | यहाँ आराम से बैठ कर मे सोचने लगा, की आखिर ये क्या हो गया मेरे साथ ? मै अपने माता पिता को याद करने लगा, जैसे बच्चे करते है जब वह गुम हो जाते है |
      मै बही आशा के साथ बरोड़ा आया था | मैंने कई अच्छे आफर ठुकराए थे | क्योकि मै सोचता था की बरोड़ा को अपनी सेवाए देना मेरा पहला फर्ज है, जहा के महाराजा ने मुझे पड़ाया | और अब देखो, मै वापस बाम्बे जा रहा हु, मात्र 11 दिन बरोड़ा मे बिताकर |
      आज भी मुझे वो डंडे हाथ मे लिए, गुस्सेल पारसी याद आ जाते है | और यह याद अक्सर मेरी आखे नम कर जाती है |
      इस घटना ने मुझे सिखाया की सिर्फ हिन्दू ही नहीं, पारसी भी अपने धर्म से हटकर, छुत-अछूत की प्रथा मानने लगे है |


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