डा. भीमराव अम्बेडकर की एक किताब "Waiting for a Visa" को कोलंबिया यूनिवर्सिटी मे
एक पाठ्यपुस्तक की तरह इस्तेमाल किया जाता है |
इस पुस्तक मे कुल छः अध्याय है |
Waiting for a Visa - By B.R.
Ambedkar
*विदेशी ये तो जानते है की भारत मे Untouchability(अस्प्रश्यता या छुत-अछूत का
रिवाज) है | पर वो इसे समझ नहीं पाते | ये लोग नहीं समझ पाते की कैसे कुछ अछूत,
गाव मे बहुत से दुसरे हिन्दुओ के साथ एक कोने मे अपना जीवन बिताते है | कैसे ये
लोग रोज गाव जाकर हर तरह की गन्दगी साफ करते है, दुकानदार से दूर से ही तेल और
मसाले खरीदते है | हिन्दुओ के घर से खाना इकठ्ठा करते है |
गाव और गाव के लोगो को अपना मानते है, फिर भी गाव
वालो से बिना छुए और बिना छुए(रहम के) रह जाते है |
----0-----अध्याय 1: बचपन की कोरेगाव की यात्रा, जो
कीसी बुरे सपने सी थी-----0----
बात है 1901 की, मै नौ साल का था और अपने परिवार के साथ सतारा मे रहता था |
माँ की मृत्यु हो चुकी थी और मेरे पिता कैशियर की नौकरी की लिए कोरेगाव चले गए थे
|
अब घर मे रह गए थे सिर्फ 5 लोग | मेरी आंटी और 4 बच्चे(मै, मेरा बड़ा भाई और
मेरी स्वर्गीय बहन के दो छोटे बेटे) |
मेरी आंटी ठिंगनी थी, और उनके पैरो मे कुछ तकलीफ थी, जिसके चलते, वो बिना किसी
की मदद के खड़ी भी नहीं हो पाती थी |
खाना हम बच्चो को ही बनाना पड़ता था, और हम अक्सर बिरयानी बनाया करते थे | क्योकि
हमें रोटी बनाना नहीं आता था |
जब गर्मी की छुट्टिया शुरू हुई तो
हमारे पिता ने हमें लिखा, की हम सब कोरेगाव आ जाए और इस बार की छुट्टिया यही बिताए
|
इतना पड़ते ही हम सारे बच्चो मे ख़ुशी
और उत्साह फ़ैल गया | हममे से किसी ने भी इससे पहले रेलवे स्टेशन नहीं देखा था |
पापा ने आगे लिखा था की, "आने से पहले मुझे बता देना, ताकि मै अपने सेवक
को तुम्हे लेने भुज दू" |
इन सब तैयारियों के साथ हम चारो
बच्चे सतारा से रवाना हुए | हमने त्योहारों पर पहने जाने वाले नए कपडे पहने और
हमारी आंटी को पड़ोसियों की देख-रेख मे रख गए |
स्टेशन पहुच कर हमने मसूर की टिकट खरीदी जो की कोरेगाव से सबसे नजदीक का
स्टेशन था | मसूर स्टेशन पर जब हम उतरे तब तक शाम के 5 बज चुके थे | कुछ ही देर मे
सारे यात्री अपनी मंजिल को चले गए और हम चार बच्चे स्टेशन पर खड़े पापा या उनके
सेवक का इंतजार करते रह गए, लेकिन कोई नहीं आया |
जब 1 घंटा बित गया तब स्टेशन मास्टर चेकिंग के लिए आया | उसने हमसे टिकट मांगी
जो हमने दिखा दी, उसने हमसे पूछा की हम वहा क्यों रुके है |
हमने उसे बताया की हमें कोरेगाव
जाना है और हम अपने पिता या उनके सेवक का इंतजार कर रहे है | लेकिन लगता है उन्हें
हमारे आने की खबर नहीं मिल सकी, अब हम नहीं जानते की कोरेगाव तक कैसे पहुचे |
हम बहुत ही अच्छे कपड़ो मे थे और स्टेशन मास्टर को ये यकीन था की हम ब्राह्मण
के बच्चे है | इसलिए वो हमसे बड़े ही स्नेह से बाते कर रहा था |
जैसा की हिन्दुओ मे आम है उसने
हमसे पूछा, "तुम क्या हो" | बिना देर किये मैंने बोल दिया की हम महार है
| यह सुनते ही स्टेशन मास्टर के चेहरे के भाव बदल गए | हम देख सकते थे, की एक अजीब
सी शक्ति, उसे हमसे दूर धकेल रही है, और दूर रहने की भावना पैदा कर रही है |
मेरा जवाब सुनते ही स्टेशन मास्टर
उलटे पाव अपने कमरे मे चला गया | और हम वही खड़े के खड़े रह गए | ना पिता आए, ना
उनका सेवक, और अब तो स्टेशन मास्टर भी चला गया | हमारे अन्दर की ख़ुशी ख़त्म हो चुकी
थी, और उसकी जगह गहरी उदासी और डर ने ले ली थी |
आधे घंटे बाद स्टेशन मास्टर ने आकर हमसे पूछा की "अब तुम क्या करोगे
|" हमने कहा अगर हमें एक तांगा मिल जाए तो हम उसे पैसे देकर कोरेगाव तक जा
सकते है | और अगर कोरेगाव ज्यादा दूर नहीं है, तो हम पैदल ही चले जाएंगे |
हमने तांगे वाले से पूछना शुरू
किया, मगर कोई भी अछूतों को अपने तांगे मे नहीं बैठाना चाहता था | हमने दोगुना
किराया देने की बात की, लेकिन जब बात अछूतों की हो, तो पैसा कोई मदद नहीं करता |
स्टेशन मास्टर जो हमारे लिए तांगे वालो से बात कर रहा था अब चुप खड़ा था, और
उसे कुछ नहीं सूझ रहा था | अचानक उसने सवाल किया, "क्या तुम तांगा चला
लोगे" | हमने लगभग चिल्लाते हुए कहा, "हां हम चला लेंगे" | जैसे हम
सबको परेशानी का हल मिल गया हो |
और इस तरह एक तांगे वाला, हमें
दोगुने कीमत पर तांगा देने को तैयार हो गया | हमने तांगा चलाना शुरू किया, और
तांगे वाला तांगे के साथ-साथ पैदल चलने लगा |
शाम के साड़े छः बज चुके थे | हमने तांगे वाले से पूछा की कोरेगाव पहुचने मे
कितना समय लगेगा ? उसने कहा, "3 घंटे से ज्यादा नहीं" |
हम आगे बड़े तो हमें एक नदी मिली
जो लगभग सुख ही चुकी थी | तांगेवाले ने कहा की हम अपना खाना यही खा ले, क्योकि
रस्ते मे पानी नहीं मिल पायेगा | उसने हमसे कुछ पैसे भी मांगे, ताकि वो भी पास के
गाव जाकर कुछ खा ले |
हमने उसे पैसे दिए और हमारा टिफिन खोला, जो की हमारे पड़ोसियों ने तैयार करके
दिया था | हमने से एक जब पानी लेने नदी मे पंहुचा, तो उसने देखा वहा बहुत गन्दगी
है, और गाय भैस का मल पुत्र भी पड़ा है | पानी से बदबू भी आ रही है | ये पानी
मनुष्यों के पीने लायक नहीं था | पानी न मिलने के कारण हम खाना भी पूरा नहीं खा
पाए |
अब हम तांगेवाले क इंतजार करने
लगे जो की बहुत समय तक वहा नहीं आया | आख़िरकार वो आया और हमारी यात्रा फिर शुरू
हुई | अँधेरा बड़ रहा था, और अब तांगेवाला अचानक अपने तांगे मे आ गया और घोड़ो की
लगाम संभाल ली | हमें बड़ा ही अजीब लगा, क्योकि यह उन्ही तांगेवालो मे से था जो
हमें तांगे मे बैठाने को तैयार नहीं हो रहे थे, और अब इस एकांत मे यह हमारे ही साथ
बड़े आराम से बैठा तांगा चला रहा था | लेकिन हममे से किसी ने भी उससे इस बारे मे
कुछ नहीं पूछा, हम तो बस कोरेगाव पहुचना चाहते थे |
कुछ ही देर मे वहा घोर अंधेरा छा
गया | वहा कोई नहीं था | ना आदमी, ना औरत, ना ही कोई जानवर | हमें तीन घंटे से
ज्यादा हो गए थे, और हम डरे सहमे से बैठे थे | हमें लगने लगा की ये तांगेवाला कही
हमें दूर अकेले मे ले जाकर मार तो नहीं डालेगा | हमारे पास गहने और पैसे थे, जो
हमारी सोच की पुष्टी कर रहे थे |
अब हम लगातार पूछते जा रहे थे की
कोरेगाव कितनी दूर है और अब तक हम वहा पहुचे क्यों नहीं ? और वो कह रहा था की
"ज्यादा दूर नहीं, बस थोड़ी दूर और" |
अब हमने रोना शुरू कर दिया, लेकिन तांगेवाला चुपचाप तांगा चलता रहा | अचानक
हमें सामने एक रोशनी दिखाई दी | तांगेवाले ने कहा, वो देखो, वो टोल कलेक्टर की रोशनी
है, हम यही रात बिताएंगे" |
आखिर हम टोल कलेक्टर निवास पर पहुच गए | वहा पहले से ही दुसरे तांगे और लोग
मौजूद थे | हमने राहत की सास ली | हमें प्यास लगी थी इसलिए हमने टोल कलेक्टर से
पानी माँगा लेकिन हमारे अछूत होने की वजह से उसने हमें पानी नहीं दिया |
किसी तरह हमने वहा रात बिताई और
सुबह-सुबह हम फिर कोरेगाव को निकले | जब हम वहा पहुचे तो पिताजी हमें देख चौक गए,
क्योकि उन्हें हमारे आने की कोई खबर नहीं थी | हमने स्पष्ट किया की हमने चिट्ठी
लिखी थी, जिसमे हमने आने का दिन बताया था | बाद मे पता चला की सारी गलती पापा के
सेवक की थी, जो उन्हें चिठ्ठी देना भूल गया था |
इस घटना से मुझे गहरा झटका लगा | हालाँकि मे अस्प्रश्यता के बारे पहले भी
जानता था | क्योकि स्कुल मे मुझे एक कोने मे बैठाया जाता था | और बैठने के लिए
कपड़े का टुकड़ा भी मुझे घर सि लाना पड़ता था | शाम को मे उस टुकड़े को मोड़ कर घर ले जाता
था और अगली सुबह फिर ले आता था |
मुझे मटके को छूने की इजाजत नहीं
थी, और जब भी मुझे प्यास लगती थी चौकीदार पानी निकलकर मेरे हाथो पर डालता था |
जिसे मे पिता था | अगर चौकीदार किसी दिन नहीं आता था, तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता
था | एक लाइन मे कह सकते है "चौकीदार
नहीं, तो पानी नहीं" |
मुझे पता है की हमारे कपड़े हमारी बहन धोती थी | एसा नहीं था की शहर मे कोई
धोबी नहीं था या हम उसे पैसे नहीं दे सकते थे | असल मे कोई भी धोबी अछूतों के कपडे
नहीं छूता था |
मेरे बाल काटने का काम थी मेरी
बहन ही किया करती थी, और हम पर हाथ आजमाते-आजमाते, बाल काटने की उस्ताद बन गई थी |
शहर मे नाइयो की कमी नहीं थी | यहाँ भी वही बात थी, की अचुतो के बाल काटे तो काटे
कौन |
मै ये सब जनता था | लेकिन इस घटना ने मुझे छूत अछूत की इस प्रथा के बारे मे
गहरे से सोचने पर मजबूर किया |
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